Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi PDF Download | गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित Best Shrimad Bhagwat Geeta in Hindi PDF Download

नमस्कार दोस्तों! आज हम आपके लिए श्रीमद्भगवद्गीता की पीडीएफ (Bhagwat Geeta In Hindi PDF) लेकर आए हैं। श्रीमद्भगवद्‌गीता हिन्दुओं का एक प्राचीन और पवित्रतम भारतीय दार्शनिक ग्रंथ है। महाभारत के समय कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के उपदेश अर्जुन को सुनाये थे।

Shri Bhagwat Geeta महाभारत के भीष्मपर्व के अन्तर्गत दिया गया एक उपनिषद् है। इसमें एकेश्वरवाद, कर्म योग, ज्ञानयोग और भक्ति योग आदि का बहुत ही सुन्दर ढंग से व्याख्या की गई है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ, जैसे: संसार के स्वरूप के संबंध में अश्वत्थ विद्या, अनादि अजन्मा ब्रह्म के विषय में अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति या जीव के विषय में अक्षरपुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या आदि, गीता में हैं।

यहां गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित Shrimad Bhagwat Geeta in Hindi PDF के सम्पूर्ण नए संस्करण का लिंक दिया गया है। जहाँ से आप आसानी से Shrimad Bhagwat Geeta in Hindi PDF को डाउनलोड कर सकते हैं।

Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi PDF Download

महाभारत के युद्ध के समय जब अर्जुन ने युद्ध करने से मना कर दिया था तब श्रीकृष्ण ने उन्हें उपदेश देते हुए उन्हें कर्म व धर्म के सच्चे ज्ञान से अवगत कराया। श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए इन्हीं उपदेशों को “श्रीमद्भगवद्गीता (Shri Bhagwat Geeta)” नामक ग्रंथ में संकलित किया गया है। यह महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है। गीता में कुल 18 अध्याय और कुल 700 श्लोक हैं। आज से लगभग 4500 वर्ष (2175 ई.पू.) पूर्व Shri Bhagwat Geeta के उपदेश दिए गए थे।

Shri Bhagwat Geeta की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी सम्मिलित हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार गीता का स्थान उपनिषद् और धर्मसूत्रों के सामान ही है तथा उपनिषदों को गौ (गाय) और Shri Bhagwat Geeta को उसका दुग्ध कहा गया है। इसका आशय है कि उपनिषदों की अध्यात्म विद्या को गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। Shri Bhagwat Geeta को नियमित पढ़ने से व्यक्ति का मन शांत रहता है और वह अपने मन पर नियंत्रण पा लेता है, साथ ही आत्मबल बढ़ता है और शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है।

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Shri Bhagwat Geeta के 18 अध्याय इस प्रकार हैं:

अध्याय : 1 अर्जुनविषादयोग

प्रथम अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है। इस अध्याय में कुल 47 श्लोक हैं। यह अध्याय गीता के उपदेश के विलक्षण रंगमंच की प्रस्तुति करता है। पहले अध्याय में दोनों सेनाओं का वर्णन किया गया है और सामान्य रीति से भूमिका रूप में अर्जुन ने भगवान से अपनी स्थिति कह दी थी।

युद्ध आरंभ होने से पहले बलप्रधान क्षात्रधर्म से प्राप्त होनेवाली स्थिति में पहुँचकर अचानक अर्जुन के मन पर एक दूसरे ही प्रकार के मनोभाव कार्पण्य का आक्रमण हुआ जिससे एक विचित्र प्रकार की करुणा अर्जुन के मन में भर आई और अर्जुन का क्षात्र स्वभाव विलुप्त हो गया। वह अपने कर्तव्य से ही विमुख हो गया, जिसके लिए वह कटिबद्ध हुआ था। अर्जुन यह निर्णय नहीं ले पा रहा था कि युद्ध करे या वैराग्य ले ले। अर्जुन को यह समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें, क्या न करें। इस मनोभाव के चरम स्थिति में पहुँचने के कारण उसने अपने धनुषबाण एक ओर डाल दिया।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन की यह स्थिति देखकर जान गए कि अर्जुन का शरीर तो ठीक है परन्तु युद्ध का आरंभ होने से पहले ही अर्जुन का मनोबल टूट चुका है। बिना मनोबल के यह शरीर खड़ा नहीं हो सकता है। अतः श्रीकृष्ण के सामने एक गुरु कर्त्तव्य आ गया। अत: तर्क से, बुद्धि से, ज्ञान से, कर्म की चर्चा से, विश्व के स्वभाव से, उसमें जीवन की स्थिति से, दोनों के नियामक अव्यय पुरुष के परिचय से और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन के मन का उद्धार करना ही, श्रीकृष्ण का लक्ष्य हुआ।

अध्याय : 2 सांख्ययोग

दूसरे अध्याय का नाम सांख्ययोग है। इस अध्याय में कुल 72 श्लोक हैं। इस अध्याय में सांख्य योग, कर्मयोग और स्थिर बुद्धि व्यक्ति के गुण आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। श्रीकृष्ण ने बताया कि जन्म और मृत्यु बारी बारी से होते हैं। प्रकृति ने सबके लिए जन्म से ही एक धर्म नियत कर दिया है। उसमें जीवन का मार्ग, कर्म की शक्ति और इच्छाओं की परिधि आदि सभी कुछ आ जाता है। इससे निकल कर भागा नहीं जा सकता है। यदि कोई भागेगा भी तो प्रकृत्ति उसे दोबारा खींचकर ले आती है।

इस तरह समय का परिवर्तन या परिमाण, जीव की नित्यता और अपना स्वधर्म या स्वभाव आदि जिन युक्तियों से भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया है, उसे उन्होंने सांख्य की बुद्धि कहा है। इसके बाद अर्जुन के प्रश्न न पूछने पर भी श्रीकृष्ण ने योगमार्ग की बुद्धि का भी वर्णन किया है। श्रीकृष्ण ने कहा है कि कर्मयोगी व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा डर यही होता है कि वह फल पाने की इच्छा के दल दल में फँस जाता है, उससे इस दल दल से बचना चाहिए और बिना फल की इच्छा करते हुए अपना कर्म करते रहना चाहिए।

अध्याय : 3 कर्मयोग

तीसरे अध्याय का नाम कर्मयोग है। इस अध्याय में कुल 43 श्लोक हैं। इस अध्याय में नित्य कर्म करने वाले की श्रेष्ठता, यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता, अज्ञानी और ज्ञानी के लक्षण तथा काम के निरोध का विषय आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। सांख्य की व्याख्या को सुनने के बाद तीसरे अध्याय में अर्जुन ने कर्मयोग नामक विषय में और गहराई तक उतरने के लिए श्रीकृष्ण से स्पष्ट प्रश्न किया कि सांख्य और योग इन दोनों मार्गों में आप किस मार्ग को अच्छा समझते हैं और क्यों यह निश्चित नहीं कहते कि मैं इन दोनों में से किसे अपनाऊँ?

इस विषय पर श्रीकृष्ण ने भी उतनी ही अधिक स्पष्टता से जबाव दिया कि लोक में दो निष्ठाएँ या जीवनदृष्टियाँ होती हैं- सांख्यवादियों के लिए ज्ञानयोग और कर्ममार्गियों के लिए कर्मयोग। इस संसार में कोई भी व्यक्ति कर्म छोड़ नहीं सकता है और यदि छोड़ता है तो प्रकृति तीनों गुणों के प्रभाव से व्यक्ति को कर्म करने के लिए बाध्य करती है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म करने से बचने वालों के प्रति एक शंका है कि वे ऊपर से तो कर्म छोड़ देते हैं किंतु मन ही मन उसमें डूबे रहते हैं। यह स्थिति असह्य है और इस स्थिति को ही श्रीकृष्ण ने Shri Bhagwat Geeta में मिथ्याचार कहा है। अपने मन में अपनी कर्मेद्रियों को रोककर कर्म करना ही सरल मानवीय मार्ग है।

अध्याय : 4 ज्ञानकर्मसंन्यासयोग

चौथे अध्याय का नाम ज्ञानकर्मसंन्यासयोग है। इस अध्याय में कुल 42 श्लोक हैं। इस अध्याय में कर्म, अकर्म और विकर्म का वर्णन, यज्ञोके स्वरूप और ज्ञानयज्ञ का वर्णन आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस अध्याय में यह बताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करने के बाद कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल प्राप्त किया जा सकता है।

भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि मैंने सबसे पहले यह ज्ञान भगवान सूर्यदेव को दिया था। इसके पश्चात यह गुरु परंपरा के द्वारा आगे बढ़ा। किन्तु अब यह लगभग लुप्त ही हो गया है। यही ज्ञान मैं अब तुम्हें बताने जा रहा हूँ। इस पर अर्जुन पूछते हैं कि आपने यह सूर्य से कैसे कहा ? आपका जन्म तो हाल ही में हुआ है। तब श्रीकृष्ण ने कहा है की तुम्हारे और मेरे अनेक जन्म हुए लेकिन तुम्हें याद नहीं हैं, पर मुझे याद हैं।

श्रीकृष्ण कहते हैं की जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं साधुओं की रक्षा करने के लिए, दुष्कर्मियों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मानव के रूप में अवतार लेता हूँ।

अध्याय : 5 कर्मसंन्यासयोग

पांचवें अध्याय का नाम कर्मसंन्यासयोग है। इस अध्याय में कुल 29 श्लोक हैं। इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और साधु पुरुष आदि के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। इस अध्याय में, मन का कर्म के साथ जो संबंध है, उसके संस्कार या उसे विशुद्ध करने पर विशेष ध्यान दिलाया गया है।

साथ ही यह भी कहा गया है कि ऊँचे धरातल पर पहुँचकर योग और सांख्य में कोई भी अंतर नहीं रहता है। यदि आप किसी एक मार्ग पर सही तरीके से चलते हैं तो आपको समान फल ही प्राप्त होता है। वह यह भी बताते हैं कि मैं सृष्टि के प्रत्येक जीव में समान रूप से निवास करता हूँ। अतः प्राणी को सदैव समदर्शी होना चाहिए।

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अध्याय : 6 आत्मसंयमयोग

छठे अध्याय का नाम आत्मसंयमयोग है। इस अध्याय में कुल 47 श्लोक हैं। इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने आत्मसंयम के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। जितने भी विषय हैं उन सबसे इंद्रियों का संयम, यहीं कर्म और ज्ञान का निचोड़ है। व्यक्ति की सुख और दुख में मन की एकसमान स्थिति को ही योग कहते हैं।

अध्याय : 7 ज्ञानविज्ञानयोग

सातवें अध्याय का नाम ज्ञानविज्ञानयोग है। इस अध्याय में कुल 30 श्लोक हैं। इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने आत्मसंयम के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। इसमें भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है जिनका और अधिक विस्तार विभूतियोग नामक दसवें अध्याय में किया गया है। साथ ही यहाँ विशेष भगवती दृष्टि का भी वर्णन है जिसका सूत्र- “वासुदेव: सर्वमिति” है अर्थात सब वसु या शरीरों में एक ही देवतत्व विद्यमान है, इसी की संज्ञा भगवान विष्णु है।

इस प्रसंग में विज्ञान की दृष्टि से अपरा और परा प्रकृति की सुनिश्चित व्याख्या गीता ने दी है। अपरा प्रकृति में आठ तत्त्व विद्यमान हैं। जिस अंड से मनुष्य का जन्म होता है, उसमें ये आठों तत्त्व विद्यमान रहते हैं। इसमें भगवन की चेष्टा के संपर्क में आने से जो चेतना आती है, उसे ही परा प्रकृति कहते हैं। इस आठ तत्वों के साथ मिलकर ही जीवन नवाँ तत्त्व बन जाता है।

अध्याय : 8 अक्षरब्रह्मयोग

आठवें अध्याय का नाम अक्षर ब्रह्मयोग है। इस अध्याय में कुल 28 श्लोक हैं। उपनिषदों में अक्षर विद्या का विस्तार हुआ है। Shri Bhagwat Geeta में इस अक्षरविद्या का सार यह है कि अक्षर ब्रह्म परमं अर्थात् अक्षर, परब्रह्म की संज्ञा है। मानव, अर्थात् जीव और शरीर की संयुक्त रचना का नाम अध्यात्म है। जीव संयुक्त भौतिक शरीर की संज्ञा ही क्षर है और केवल शक्ति तत्त्व की संज्ञा ही आधिदैवक है।

शरीर के भीतर जीव, ईश्वर और भूत ये तीनों शक्तियाँ मिलकर जिस तरह कार्य करती हैं, उसे अधियज्ञ कहा गया है। गीताकार ने दो श्लोकों में इन छह पारिभाषाओं का स्वरूप व्यक्त किया गया है। Shri Bhagwat Geeta के शब्दों में ॐ एकाक्षर ब्रह्म है।

अध्याय : 9 राजविद्याराजगुह्ययोग

नवें अध्याय का नाम राजविद्याराजगुह्ययोग है। इस अध्याय में कुल 34 श्लोक हैं। इसके अनुसार यह अध्यात्म विद्या विद्याराज्ञी है और यह गुह्य ज्ञान सबसे श्रेष्ठ है। राजा शब्द का एक अर्थ मन भी है। अतः अपने मन की दिव्य शक्तियों को किस तरह ब्रह्ममय बनाया जाय, इसका उपाय ही राजविद्या है।

अध्याय : 10 विभूतियोग

दसवें अध्याय का नाम विभूतियोग है। इस अध्याय में कुल 42 श्लोक हैं। इस अध्याय में यह बताया गया है कि लोक में जितने भी देवता हैं, सब एक ही भगवान के स्वरूप हैं तथा मनुष्य के सभी गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही स्वरूप हैं। इस संसार में कोई पीपल की पूजा कर रहा है, कोई नदी या समुद्र की, कोई उनमें रहने वाले मछली, कछुओं आदि जीवों की तो कोई पहाड़ों की।

इस संसार में कितने देवता हैं, इसका कोई भी अंत नहीं है। इस संसार के इतिहास में देवताओं की यह भरमार सभी जगह पाई जाती है। भागवतों ने इनकी सत्ता को मानते हुए सभी को भगवान विष्णु का ही स्वरूप माना है। इसी का नाम विभूतियोग है।

अध्याय : 11 विश्वरूपदर्शनयोग

ग्यारहवें अध्याय का नाम विश्वरूपदर्शन योग है। इस अध्याय में कुल 55 श्लोक हैं। इस अध्याय में अर्जुन ने भगवान का विश्वरूप देखा है। भगवान के विराट रूप का अर्थ यह है कि अनंत विश्व का प्राणवंत रचनाविधान, जो मानवीय धरातल और परिधि के ऊपर है, उसके साक्षात दर्शन है। भगवान विष्णु का चतुर्भुज रूप इस मानवीय धरातल पर सौम्य है।

अर्जुन ने जब भगवान विष्णु का विराट रूप देखा तो घबराहट में उनके मुख से ‘दिशो न जाने न लभे च शर्म’ ये ही वाक्य निकले और उन्होंने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि ईश्वर ने मानव के लिए जो स्वाभाविक स्थिति रखी है, वही उनके लिए पर्याप्त हैं।

अध्याय : 12 भक्तियोग

बारहवें अध्याय का नाम भक्ति योग है। इस अध्याय में कुल 20 श्लोक हैं। यह जानने योग्य है कि मनुष्य इसे जानकर परम आनन्द को प्राप्त हो जाता है अर्थात् वो परमात्मा ही सत्य है।

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अध्याय : 13 क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग

तेरहवें अध्याय का नाम क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग है। इस अध्याय में कुल 34 श्लोक हैं। इस अध्याय में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का विचार, के विषय का वर्णन किया गया है। मनुष्य का यह शरीर क्षेत्र है तथा उसका जानने वाला जीवात्मा ही क्षेत्रज्ञ है।

अध्याय : 14 गुणत्रयविभागयोग

चौदहवें अध्याय का नाम गुणत्रयविभागयोग है। इस अध्याय में कुल 27 श्लोक हैं। इस अध्याय का यह विषय सभी वैदिक, दार्शनिक और पौराणिक तत्वचिंतन का निचोड़ है। इसमें सत्व, रज और तम नामक तीन गुण-त्रिको की अनेक व्याख्याएँ हैं। गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रधान या प्रकृति रखा गया है। सत्व गुण शांत स्वभाव से निर्मल प्रकाश की तरह सदैव स्थिर रहता है और तम गुण भी सदैव जड़वत निश्चेष्ट रहता है। परंतु इन दोनों के बीच में उपस्थित रजोगुण इन्हें चेष्टा के धरातल पर खींच लाता है। गति तत्त्व का नाम ही रजस है।

अध्याय : 15 पुरुषोत्तमयोग

पंद्रहवें अध्याय का नाम पुरुषोत्तमयोग है। इस अध्याय में कुल 20 श्लोक हैं। इस अध्याय में विश्व का अश्वत्थ के रूप में बहुत ही सुंदर वर्णन किया गया है। यह महान विस्तार वाला अश्वत्थ रूपी संसार का देश और काल में कोई अंत नहीं है। परंतु इस ऊर्ध्व का जो मूल या केंद्र है, वह ब्रह्म ही हैं। Shri Bhagwat Geeta के अनुसार, वैश्वानर या प्राणमयी चेतना से बढ़कर कोई और दूसरा रहस्य नहीं है।

नर अथवा पुरुष तीन हैं- क्षर, अक्षर और अव्यय। पंचभूतों का नाम ही क्षर है, प्राण का नाम ही अक्षर है तथा मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा को ही अव्यय कहते हैं। मानवी चेतना का जन्म इन्हीं तीन नरों की एकत्र स्थिति से होता है, इसे ही ऋषियों ने वैश्वानर अग्नि कहा है।

अध्याय : 16 दैवासुरसम्पद्विभागयोग

सोलहवें अध्याय का नाम दैवासुरसम्पद्विभागयोग है। इस अध्याय में कुल 24 श्लोक हैं। इस अध्याय में देवासुर संपत्ति के विभाग के बारे में बताया गया है। इसके अनुसार प्रारंभ से ही ऋग्देव में इस संसार की कल्पना दैवी और आसुरी शक्ति के रूप में की गई है। यह इस संसार के द्वि विरुद्ध रूप की कल्पना है कि एक अच्छा है तो दूसरा बुरा है, एक प्रकाश में है तो दूसरा अंधकार में, एक अमृत है तो दूसरा मर्त्य तथा एक सत्य है तो दूसरा असत्य।

अध्याय : 17 श्रद्धात्रयविभागयोग

सत्तरहवें अध्याय का नाम श्रद्धात्रय विभाग योग है। इस अध्याय में कुल 28 श्लोक हैं। इस अध्याय का संबंध सत, रज और तम नामक इन तीन गुणों से ही है, अर्थात् जिसमें को गुण विद्यमान होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा उसी गुण की तरह बन जाती है। यज्ञ, तप, दान और कर्म ये सभी भी तीन प्रकार की श्रद्धा से ही संचालित होते हैं और यहाँ तक कि आहार भी तीन प्रकार का होता है। इनके भेद और लक्षण यहाँ Bhagwat Geeta में बताए गए हैं।

अध्याय : 18 मोक्षसंन्यासयोग

अट्ठारहवें अध्याय का नाम मोक्षसंन्यासयोग है। इस अध्याय में कुल 78 श्लोक हैं। इस अध्याय में Bhagwat Geeta के सभी उपदेशों का सार एवं उपसंहार है। यहाँ दोबारा मानव जीवन के लिए तीन गुणों के महत्त्व के बारे में कहा गया है।

स्वर्ग के देवताओं और पृथ्वी के मानवों में कोई भी प्रकृति के चलाए हुए इन तीन गुणों से नहीं बचा है। मनुष्य को बहुत संभलकर चलना चाहिए जिससे वह अपनी बुद्धि और वृत्ति को बुराई से बचा सके तथा कार्य और अकार्य क्या है, इसको पहचान सके। वही सात्विक बुद्धि और मानव की सच्ची उपलब्धि है, जो धर्म और अधर्म को, वृत्ति और निवृत्ति को तथा बंध और मोक्ष को ठीक से पहचानती है।

अंत में श्रीकृष्ण ने यह कहा है कि मनुष्य को इस संसार के सभी व्यवहारों का सच्चाई से पालन करते हुए, जो प्रत्येक प्राणी के हृद्देश या केंद्र में विराजमान हैं, जिसे ईश्वर कहते हैं, उसमें विश्वास रखना चाहिए और उसका अनुभव करना चाहिए। यहीं जीवन के सर्वोपरि आनंद का स्रोत है।

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यहां से आप गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित Shrimad Bhagwat Geeta in Hindi PDF का सम्पूर्ण नया संस्करण PDF में आसानी से डाउनलोड कर सकते है –

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निष्कर्ष : आशा करता हूँ कि आपको ये पोस्ट पसंद आई होगी और आपके लिए बहुत फायदेमंद भी रही होगी इसलिए इस पोस्ट को अपने दोस्तों के साथ जरूर शेयर करे। ऊपर दी गई Bhagwat Geeta In Hindi PDF की भाषा बहुत ही सरल और गूढ़ है। प्रस्तुत गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित इस Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi PDF में व्याख्या करते समय सरल वाक्यों का प्रयोग किया गया है। यदि आपको Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi PDF को डाउनलोड करने में कोई परेशानी आ रही हो या आपको किसी और पीडीएफ की आवश्यकता हो तो आप कमेंट कर हमें बता सकते हैं।

यह भी देखें :-

FAQs : Shrimad Bhagwat Geeta in Hindi PDF FAQs

Q : भगवत गीता पढ़ने से क्या लाभ होता है?

Ans : जो व्यक्ति नियमित Bhagwat Geeta पड़ता है उसका मन सदैव शांत रहता है और वह अपने मन में नियंत्रण पा लेता है, व्यक्ति का काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दूर हो जाता है, व्यक्ति को सच और झूठ का ज्ञान होता है, अच्छे बुरे की समझ आती है, आत्मबल मजबूत है, भय, डर दूर हो जाता है और शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है।

Q : श्रीमद्भागवत गीता कैसे पढ़नी चाहिए?

Ans : सुबह के समय हमारा मन, मस्तिष्क और वातावरण में शांति व सकारात्मकता होती है इसलिए Bhagwat Geeta पढ़ने के लिए प्रातः सुबह का समय सबसे उत्तम समझा जाता है। Shri Bhagwat Geeta का पाठन हमेशा स्नान के बाद और शांत मन के साथ करना चाहिए,  Shri Bhagwat Geeta का पाठ करते समय इधर-उधर की बातें नहीं करनी चाहिए और न ही बीच-बीच में किसी कार्य के लिए बार-बार उठना चाहिए।

Q : गीता का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय कौन सा है?

Ans : Bhagwat Geeta का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय दशवें अध्याय को माना जाता है क्योंकि इस अध्याय में Shri Bhagwat Geeta के सभी उपदेशों का सार एवं उपसंहार है। यहाँ पुनः मानव जीवन के लिए तीन गुणों के महत्त्व के बारे में कहा गया है।

Q : गीता के अनुसार सबसे बड़ा पाप क्या है?

Ans : Bhagwat Geeta के अनुसार सबसे बड़ा पाप “जीव हत्या” है। साथ ही हरे पेड़ों को अनावश्यक रूप से काटना भी पाप है।

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